By Sakshi Sri
तू बीज था उस पेड़ का,
जिसे ना खोया जा सकता था, ना बोया जा सकता था।
पर बो दिया उसने, बो दिया उसने…
आखिर अश्क था तू उसका
इसलिए बो दिया उसने।
पर तेरे बोते ही मानो बगीचे में तबाही सी मच गई, तूफ़ान सा आ गया।
सब जड़ से निकाल फेंकना चाहते थे तूझको, तू हो गया था इस कदर बर्बाद।
मैं भी वहां ताज्जुब खड़ी तेरी बेशर्मी देखती रही,
मन ने बस एक ही सवाल दोहराया,
किस मिट्टी का बना है रे तू, इतनी ज़िल्लतों बाद भी यूं खड़ा है रे तू।
तभी मेरी नज़र उस पेड़ पड़ी, जिसने तूझे बोया था,
उसकी आंखों से मानो आंसुओं का समंदर बह रहा हो,
बहे भी क्यूँ न, अरे बहे भी क्यूँ न…
नर नारियों वाले समाज में तूझे जन्म दिया था उसने, एक किन्नर को जन्म दिया था उसने।
पर आज तू सारी बाधाओं को तोड़कर खड़ा हो गया है,
आज तू बड़ा हो गया है,
और माँ, माँ तेरी बूढ़ी…
आज हंस रही उसकी बूढ़ी आँखें,
मानो खिल्ली उड़ा रहीं हों समाज की,
अरे उड़ाए भी क्यूँ न,
उसका बच्चा अफ़सर जो बन गया है।।
