By Bhargavi G. Iyer
माना कि जब जुहू की मिट्टी से भर जाते,
मैंने उन्हें खूब धोया-पीटा है।
लोकल ट्रैन की भीड़ में घुसते-घुसाते,
भागते-चढ़ते, प्लैटफॉर्म पे घसीटा है।
अब सड़कों की खुशबू उनसे महकती है,
तो प्याज़ की तरह रुलाते हैं,
फ़िलहाल, मेरे दरवाज़े के पीछे से,
मेरे जूते अब भी मुझे बुलाते हैं।
किसी असभ्य गवार को, उतारकर,
उसका दूसरा चेहरा भी दिखाया है,
अपने हाथों में सँवारकर,
किसी कीड़े को सबक भी सिखाया है।
कभी गुस्से या निराशा में पटकते,
तो कभी नाचते सुर में ताल मिलाते हैं,
फ़िलहाल, मेरे दरवाज़े के पीछे से,
मेरे जूते अब भी मुझे बुलाते हैं।
हरी, सूखी, गीली, पीली,
सारे किस्म के घास चराए हैं,
चर्खी-झूले की ऊंचाई से ढीली,
तब किसी के सर पे भी गिराए हैं।
पर्यटन की टोली ने ठुकरा दिया,
तो इनके संगत से काम चलाते हैं,
फ़िलहाल, मेरे दरवाज़े के पीछे से,
मेरे जूते अब भी मुझे बुलाते हैं।
दलदली पोखर में कूदते-उछलते,
कीचड़ उनपर शान से उड़ाया है,
एक जगह की खोज में मीलों चलते,
उन्हें सीढ़ियों से लेकर पहाड़ों तक चढ़ाया है।
नैन तो हैं नहीं, पर सारी दुनिया देख ली।
इन्हे ही तो सारा दर्द दिखलाते हैं,
फ़िलहाल, मेरे दरवाज़े के पीछे से,
मेरे जूते अब भी मुझे बुलाते हैं।
पैर में नाखून लंबे हो जाते,
तो उनकी तलवों में गहरा घुसाया है,
किसी को अपनी बातें सुनाते-सुनाते,
च्यूइंग गम में भी फँसाया है।
चोट तो उन्हें भी लगती ज़रूर,
पर उनके लिए आसान है, मोची जो सिलाते हैं,
फ़िलहाल, मेरे दरवाज़े के पीछे से,
मेरे जूते अब भी मुझे बुलाते हैं।
दुकानें ढूंढ-ढूंढकर, आईने परख-परखकर,
उन्हें लाखों में एक (चलो, दो) करके चुना है,
आज-कल, जज़्बातों को अंदर ही रखकर,
मुरझाये से हैं, ऐसा सुना है?
कहीं कोनों में पड़े हैं, रूठे,
इतना कि जालें ने भी साथ दिया छोड़,
कहते हैं ये, भले तल्ले अपने टूटे,
हमारी सुसंगति की उम्मीद मत तोड़।
आज-कल दिन की थकान से नहीं,
ज़िंदगी की विरत्तियों से हम खुद को सुलाते हैं,
फ़िलहाल, मेरे दरवाज़े के पीछे से,
मेरे जूते अब भी मुझे बुलाते हैं।
